मूवी रिव्यू: सफेद

मूवी रिव्यू: सफेद

Movie review सफेद
Movie review सफेद

कास्टिंग :  

मीरा चोपड़ा,अभय वर्मा,बरखा बिष्ट,जमील खान,छाया कदम





बॉलिवुड में किन्नरों पर अब तक कई फिल्में बनी हैं, जिसमें 'दरमियान', 'तमन्ना', 'शबनम मौसी', 'लक्ष्मी' शामिल हैं। वहीं 'ताली' जैसी वेब सीरीज भी आई। इन सभी में किन्नर समाज की त्रासदियों को अलग-अलग तरीके से दिखाया गया है। निर्माता-निर्देशक संदीप सिंह की 'सफेद' भी किन्नरों पर आधारित है। किन्नर और विधवा की अपरंपरागत प्रेम कहानी हैं। संदीप ने यह फिल्म बेशक एक अच्छी नीयत से बनाई है, मगर कमजोर कहानी के कारण फिल्म अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहती है।


सफेद' की कहानी

कहानी का बैकड्रॉप वाराणसी है, जहां काली ( मीरा चोपड़ा) हाल ही में विधवा हुई एक औरत है और दूसरी तरफ किन्नर चांडी (अभय वर्मा) है। दोनों ही विभिन्न समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, मगर दोनों की हालात समाज में एक-से है। विधवा होने के बाद काली को सफेद साड़ी पहनाकर जिंदगी के हर रंग से महरूम कर दिया जाता है और आश्रम में अम्मा (छाया कदम) के पास भेज दिया जाता है। इस आश्रम में विधवाएं बेरंग जीवन जीने को मजबूर हैं।


दूसरी तरफ समाज से neglected और despised चांडी को किन्नर गुरु मां (जमील खान) और किन्नर राधा (बरखा बिष्ट) देह व्यापार अपनाने पर मजबूर करते हैं, मगर वो इसके लिए तैयार नहीं है। समाज द्वारा सताए हुए ये दोनों जीवन के एक ऐसे मोड़ पर मिलते हैं, जहां इनके लिए जीने का कोई मकसद नहीं है। ये दोनों ही गंगा में डूबकर मरना चाहते हैं, मगर फिर दोनों ही एक-दूसरे को बचाकर mutual प्रेम करने लगते हैं। काली, चांडी के किन्नर होने की असलियत से अनजान है। इधर चांडी भी चांद बनकर काली से मेल-मिलाप बढ़ाने लगता है। दोनों की बेमतलब जिंदगी को मकसद मिल जाता है। मगर फिर वो दिन आ ही जाता है, जब काली के सामने चांडी की असलियत आ जाती है। किन्नरों से घृणा करने वाली काली, क्‍या चांडी की सच्‍चाई को अपना पाएगी? क्या समाज उनके रिश्ते को स्वीकार कर पाएगा? क्या होगा इन दोनों की प्रेम कहानी का अंजाम? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।


सफेद' मूवी रिव्‍यू

इसमें कोई शक नहीं कि निर्देशक संदीप सिंह, विधवा और किन्नर की कहानी की शुरुआत दिल झकझोर देने वाले ढंग से करते हैं, मगर वे कहानी को अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचा पाते। काली और चांडी के किरदारों को मजबूती देने के लिए जिस चीज की जरूरत है, वो फिल्म में नही है। काली क्यों विधवाओं के आश्रम में रहने को मजबूर है? इस पर गौर ही नहीं दिया गया है। Subject की जरूरत को देखते हुए संदीप का अप्रोच किरदारों को लेकर ब्लंट है, मगर कहीं-कहीं ये ओवर द टॉप हो गया है। गालियों और अपशब्दों की भरमार की गई है, यह लोगों को खल सकती है। विधवाओं और किन्नरों की दूसरी मूलभूत समस्याओं को दूर से छुआ गया है।


कहानी में डेप्थ की कमी साफ दिखती है। किरदारों के चरित्रों का proper development नहीं किया गया है। इसके बावजूद किन्नर और विधवा की प्रेम कहानी को मासूम ढंग से दिखाया गया है। कई दृश्य ऐसे भी हैं, जो दिल को झकझोर कर रख देते हैं? कि क्यों इन दोनों समाज के लोगों को आम जिंदगी जीने का अधिकार नहीं? होली सीक्वेंस, किन्नरों का विवाह और विधवा होने का समारोह, महामृत्युंजय क्रिया जैसे कई दृश्य असरकारक हैं। अनिर्बान चटर्जी की सिनेमैटोग्राफी में बनारस खूबसूरत लगता है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर दमदार है। संगीत की बात करें तो, 'पिया गए परदेस', 'रंग रसिया', 'गीला करना' जैसे गाने अच्छे हैं।


अभिनय के मामले में अभय वर्मा ने चांद और चांडी दोनों की ही भूमिका को दमदार ढंग से किया है। वे किन्नर की चाल-ढाल ही नहीं, बल्कि उसके इमोशन को पकड़ने में भी कामयाब रहे हैं। विधवा काली के रूप में मीरा चोपड़ा भी अपनी अभनिय प्रतिभा का परिचय देती हैं। बरखा बिष्ट किन्नर के रूप में असर छोड़ जाती हैं। अम्मा की भूमिका में छाया कदम सहज हैं, मगर गुरु मां के किरदार को जमील खान लाउड कर ले जाते हैं। अन्य सहयोगी किरदार मेलोड्रामा को बढ़ावा देते हैं।


क्यों देखें - अलग विषयों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।


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